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12/01/2015

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पीरियड्स एक ऐसा विषय है जिस पर लड़कियां खुलकर बात नहीं कर पाती क्यों .......

  (Menstruation) या पीरियड्स  एक ऐसा विषय है जिस पर लड़कियां खुलकर बात नहीं कर पाती हैं । 
पीरियड्स (Menstruation) के विषय पर ना बात करने की इसी वजह से महिला स्वास्थ्य से जुड़े ऐसे अहम मुद्दों पर भी कई तरह की भ्रम जन्म लेती हैं । कुछ युवाओं ने इस विषय पर फ़िल्म और डॉक्यूमेंट्री के ज़रिए लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने का बीड़ा उठाया है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्र और छात्राओ ने इसी विषय पर बनाए गए एक वीडियो ने यूट्यूब पर लोगों का ध्यान खींचा । कुछ ही दिनों में ये वीडियो  वायरल हो गया। इसका विषय था, 'वॉट इफ़बॉयज़ हेड पीरियड्स' (क्या होता अगर लड़कों को माहवारी होता) । 
वीडियो में कुछ युवकों से यही सवाल पूछा गया। कुछ जवाब मज़ाकिया किस्म के थे तो कुछ बेहद गंभीर । 

बात तो करें

 दिल्ली विश्वविद्यालय के युवक कहते हैं, ''इस बारे में बात करने का वीडियो भी एक तरीका है।  हमारी कोशिश थी कि लोगों का ध्यान इस ओर कैसे खींचा जाएइसके लिए ह्यूमर बहुत काम आता है । वो कहते हैं, "क्योंकि आजकल लोगों को जल्दी है तो वीडियो छोटा होना चाहिए। कम से कम मज़ाक में ही सहीपर लोग अब इसके बारे में बात तो करने लगे हैं."
वहीं युवतियों का कहना है, ''जब तक किसी मुद्दे पर बात नहीं करेंगेआने वाली पीढ़ियों को वो बात कैसे समझ में आएगीहमारे देश में मासिक धर्म के बारे में बात ही नहीं होतीइसलिए कई सामाजिक रूढ़ियांपूर्वाग्रह और धारणाएं मासिक धर्म से जुड़ी हुई हैं।  मैं तो कहूंगा कि अगर मर्दों को माहवारी होता तो वो भी बच्चे पैदा कर सकते।''

'मुझे शर्म आती है'

एक किशोरी से सबसे पहले बात की, किशोरी की मां घर-घर जाकर काम करती हैं और उनके पिता एक मज़दूर हैं।  किशोरी बताती है, "मेरे यहां मासिक धर्म के दौरान बार-बार नहाने का रिवाज़ है."उन्होंने बताया, ''हम उन दिनों मंदिर नहीं जातेपूजा नहीं करते क्योंकि हमें अछूत माना जाता है।''
एक और किशोरी देहरादून के एक कॉलेज में पढ़ती हैं। उसके के लिए सैनिट्री पैड्स ख़रीदना आसान काम नहीं है । वह कहती हैं, "मैं अपने लिए पैड्स नहीं लेती।  मुझे शर्मिंदगी महसूस होती हैमैं मंदिर नहीं जाती।  आचार नहीं छूती।"

मनाना पड़ा

  इस बारे में कई लड़कियों से बात की, लेकिन उनमें से अधिकतर को बात करने के लिए मनाना पड़ा और ये काम आसान नहीं था । 
वीडियो मेकर बताती हैं, "लोग बात करने को तैयार नहीं थे। अगर लड़कियां तैयार हो भी जाती हैं तो उनके परिवार वाले नहीं मानते। वो कहते हैं कि जैसा चल रहा है उसे बदलने की क्या ज़रूरत हैमेरा ये कहना है कि जब कोई चीज़ प्रकृति ने खुद बनाई है तो शर्म कैसी?"इन युवाओं ने माहवारी पर लोगों की झिझक दूर करने की कोशिश शुरू की है और उन्हें यक़ीन है कि इससे शायद एक बड़े बदलाव की शुरुआत हो सकती है । 

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